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कोई पैग़ाम-ए-मोहब्बत लब-ए-एजाज़ तो दे - फ़िराक़ गोरखपुरी कविता - Darsaal

कोई पैग़ाम-ए-मोहब्बत लब-ए-एजाज़ तो दे

कोई पैग़ाम-ए-मोहब्बत लब-ए-एजाज़ तो दे

मौत की आँख भी खुल जाएगी आवाज़ तो दे

मक़्सद-ए-इश्क़ हम-आहंगी-ए-जुज़्व-ओ-कुल है

दर्द ही दर्द सही दिल बू-ए-दम-साज़ तो दे

चश्म-ए-मख़मूर के उनवान-ए-नज़र कुछ तो खुलें

दिल-ए-रंजूर धड़कने का कुछ अंदाज़ तो दे

इक ज़रा हो नशा-ए-हुस्न में अंदाज़-ए-ख़ुमार

इक झलक इश्क़ के अंजाम की आग़ाज़ तो दे

जो छुपाए न छुपे और बताए न बने

दिल-ए-आशिक़ को इन आँखों से कोई राज़ तो दे

मुंतज़िर इतनी कभी थी न फ़ज़ा-ए-आफ़ाक़

छेड़ने ही को हूँ पुर-दर्द ग़ज़ल साज़ तो दे

हम असीरान-ए-क़फ़स आग लगा सकते हैं

फ़ुर्सत-ए-नग़्मा कभी हसरत-ए-परवाज़ तो दे

इश्क़ इक बार मशिय्यत को बदल सकता है

इंदिया अपना मगर कुछ निगह-ए-नाज़ तो दे

क़ुर्ब ओ दीदार तो मालूम किसी का फिर भी

कुछ पता सा फ़लक-ए-तफ़रक़ा-पर्दाज़ तो दे

मंज़िलें गर्द की मानिंद उड़ी जाती हैं

अबलक़-ए-दहर कुछ अंदाज़-ए-तग-ओ-ताज़ तो दे

कान से हम तो 'फ़िराक़' आँख का लेते हैं काम

आज छुप कर कोई आवाज़ पर आवाज़ तो दे

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