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जुनून-ए-कारगर है और मैं हूँ - फ़िराक़ गोरखपुरी कविता - Darsaal

जुनून-ए-कारगर है और मैं हूँ

जुनून-ए-कारगर है और मैं हूँ

हयात-ए-बे-ख़बर है और मैं हूँ

मिटा कर दिल निगाह-ए-अव्वलीं से

तक़ाज़ा-ए-दिगर है और मैं हूँ

कहाँ मैं आ गया ऐ ज़ोर-ए-परवाज़

वबाल-ए-बाल-ओ-पर है और मैं हूँ

निगाह-ए-अव्वलीं से हो के बरबाद

तक़ाज़ा-ए-दिगर है और मैं हूँ

मुबारकबाद अय्याम-ए-असीरी

ग़म-ए-दीवार-ओ-दर है और मैं हूँ

तिरी जमइय्यतें हैं और तू है

हयात-ए-मुंतशर है और मैं हूँ

कोई हो सुस्त-पैमाँ भी तो यूँ हो

ये शाम-ए-बे-सहर है और मैं हूँ

निगाह-ए-बे-महाबा तेरे सदक़े

कई टुकड़े जिगर है और मैं हूँ

ठिकाना है कुछ इस उज़्र-ए-सितम का

तिरी नीची नज़र है और मैं हूँ

'फ़िराक़' इक एक हसरत मिट रही है

ये मातम रात भर है और मैं हूँ

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