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हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया - फ़िराक़ गोरखपुरी कविता - Darsaal

हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया

हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया

ख़ुद बढ़ के इश्क़ ने मुझे मेरा पता दिया

गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-हस्ती-ए-फ़ानी उड़ा दिया

ऐ कीमिया-ए-इश्क़ मुझे क्या बना दिया

वो सामने है और नज़र से छुपा दिया

ऐ इश्क़-ए-बे-हिजाब मुझे क्या दिखा दिया

वो शान-ए-ख़ामुशी कि बहारें हैं मुंतज़िर

वो रंग-ए-गुफ़्तुगू कि गुलिस्ताँ बना दिया

दम ले रही थीं हुस्न की जब सेहर-कारियाँ

इन वक़्फा-हा-ए-कुफ्र को ईमाँ बना दिया

मालूम कुछ मुझी को हैं उन की रवानियाँ

जिन क़तरा-हा-ए-अश्क को दरिया बना दया

इक बर्क़-ए-बे-क़रार थी तम्कीन-ए-हुस्न भी

जिस वक़्त इश्क़ को ग़म-ए-सब्र-आज़मा दिया

साक़ी मुझे भी याद हैं वो तिश्ना-कामियाँ

जिन को हरीफ़-ए-साग़र-ओ-मीना बना दिया

मालूम है हक़ीक़त-ए-ग़म-हा-ए-रोज़गार

दुनिया को तेरे दर्द ने दुनिया बना दिया

ऐ शोख़ी-ए-निगाह-ए-करम मुद्दतों के बा'द

ख़्वाब-ए-गिरान-ए-ग़म से मुझे क्यूँ जगा दिया

कुछ शोरिशें तग़ाफ़ुल-ए-पिन्हाँ में थीं जिन्हें

हंगामा-ज़ार-ए-हश्र-ए-तमन्ना बना दिया

बढ़ता ही जा रहा है जमाल-ए-नज़र-फ़रेब

हुस्न-ए-नज़र को हुस्न-ए-ख़ुद-आरा बना दिया

फिर देखना निगाह लड़ी किस से इश्क़ की

गर हुस्न ने हिजाब-ए-तग़ाफुल उठा दिया

जब ख़ून हो चुका दिल-ए-हस्ती-ए-एतिबार

कुछ दर्द बच रहे जिन्हें इंसाँ बना दिया

गुम-कर्दा-ए-वफ़ूर-ए-ग़म-ए-इंतिज़ार हूँ

तू क्या छुपा कि मुझ को मुझी से छुपा दिया

रात अब हरीफ़-ए-सुब्हह-ए-क़यामत ही क्यूँ न हो

जो कुछ भी हो उस आँख को अब तो जगा दिया

अब मैं हूँ और लुत्फ़-ओ-करम के तकल्लुफ़ात

ये क्यूँ हिजाब-ए-रंजिश-ए-बे-जा बना दिया

थी यूँ तो शाम-ए-हिज्र मगर पिछली रात को

वो दर्द उठा 'फ़िराक़' कि मैं मुस्कुरा दिया

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