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अब दौर-ए-आसमाँ है न दौर-ए-हयात है - फ़िराक़ गोरखपुरी कविता - Darsaal

अब दौर-ए-आसमाँ है न दौर-ए-हयात है

अब दौर-ए-आसमाँ है न दौर-ए-हयात है

ऐ दर्द-ए-हिज्र तू ही बता कितनी रात है

हर काएनात से ये अलग काएनात है

हैरत-सरा-ए-इश्क़ में दिन है न रात है

जीना जो आ गया तो अजल भी हयात है

और यूँ तो उम्र-ए-ख़िज़्र भी क्या बे-सबात है

क्यूँ इंतिहा-ए-होश को कहते हैं बे-ख़ुदी

ख़ुर्शीद ही की आख़िरी मंज़िल तो रात है

हस्ती को जिस ने ज़लज़ला-सामाँ बना दिया

वो दिल क़रार पाए मुक़द्दर की बात है

ये मुशगाफ़ियाँ हैं गिराँ तब-ए-इश्क़ पर

किस को दिमाग़-ए-काविश-ए-ज़ात-ओ-सिफ़ात है

तोड़ा है ला-मकाँ की हदों को भी इश्क़ ने

ज़िंदान-ए-अक़्ल तेरी तो क्या काएनात है

गर्दूं शरार-ए-बर्क़-ए-दिल-ए-बे-क़रार देख

जिन से ये तेरी तारों भरी रात रात है

गुम हो के हर जगह हैं ज़-ख़ुद रफ़्तगान-ए-इश्क़

उन की भी अहल-ए-कश्फ़-ओ-करामात ज़ात है

हस्ती ब-जुज़ फ़ना-ए-मुसलसल के कुछ नहीं

फिर किस लिए ये फ़िक्र-ए-क़रार-ओ-सबात है

उस जान-ए-दोस्ती का ख़ुलूस-ए-निहाँ न पूछ

जिस का सितम भी ग़ैरत-ए-सद-इल्तिफ़ात है

यूँ तो हज़ार दर्द से रोते हैं बद-नसीब

तुम दिल दुखाओ वक़्त-ए-मुसीबत तो बात है

उनवान ग़फ़लतों के हैं क़ुर्बत हो या विसाल

बस फ़ुर्सत-ए-हयात 'फ़िराक़' एक रात है

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