इक तेरा आसरा है फ़क़त ऐ ख़याल-ए-दोस्त
सब बुझ गए चराग़ शब-ए-इंतिज़ार में
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दीवाने को मजाज़-ओ-हक़ीक़त से क्या ग़रज़
शिकस्त-ए-दिल की हर आवाज़ हश्र-आसार होती है
क्या मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ से 'फ़िगार'
आदाब-ए-आशिक़ी से तो हम बे-ख़बर न थे
मायूस दिलों को अब छेड़ो भी तो क्या हासिल
शोहरत-ए-तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ आम हुई जाती है
तुम हरीम-ए-नाज़ में बैठे हो बेगाने बने
क़दम क़दम पे दोनों जुर्म-ए-इश्क़ में शरीक हैं
महफ़िल-ए-कौन-ओ-मकाँ तेरी ही बज़्म-ए-नाज़ है
सई-ए-ग़ैर-हासिल को मुद्दआ नहीं मिलता
साक़ी ने निगाहों से पिला दी है ग़ज़ब की
उन पे क़ुर्बान हर ख़ुशी कर दी