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तुम हरीम-ए-नाज़ में बैठे हो बेगाने बने - फ़िगार उन्नावी कविता - Darsaal

तुम हरीम-ए-नाज़ में बैठे हो बेगाने बने

तुम हरीम-ए-नाज़ में बैठे हो बेगाने बने

जुस्तुजू में अहल-ए-दिल फिरते हैं दीवाने बने

सब को साक़ी ने नहीं बख़्शा दिल-ए-दर्द-आश्ना

जितने अहल-ए-ज़र्फ़ थे उतने ही पैमाने बने

जल्वा-ए-हुस्न और सोज़-ए-इश्क़ दोनों एक हैं

शम्अ की लौ थरथराने ही से परवाने बने

मौज-ए-तूफ़ाँ-ख़ेज़ उठ कर छीन ले साहिल की आस

नाख़ुदा के आते आते क्या ख़ुदा जाने बने

दम-ब-ख़ुद है तेरे आगे ए'तिबार-ए-अक़्ल-ओ-होश

होश वाले जब बढ़े हद से तो दीवाने बने

देख ले ज़ाहिद मिरी रौशन-ज़मीरी की नुमूद

एक आईने से कितने आइना-ख़ाने बने

ऐ 'फ़िगार' अफ़्साना-ए-दैर-ओ-हरम का ज़िक्र क्या

इस हक़ीक़त के न जाने कितने अफ़्साने बने

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