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तूफ़ाँ से बच के दामन-ए-साहिल में रह गया - फ़िगार उन्नावी कविता - Darsaal

तूफ़ाँ से बच के दामन-ए-साहिल में रह गया

तूफ़ाँ से बच के दामन-ए-साहिल में रह गया

मुश्किल के ब'अद और भी मुश्किल में रह गया

इक शोर था जो गोशा-ए-महफ़िल में रह गया

इक दर्द था जो दिल से उठा दिल में रह गया

अब वो निगाह-ए-नाज़ हुई माइल-ए-करम

जब कोई मुद्दआ न मिरे दिल में रह गया

मंज़िल मिरे क़रीब से हो कर गुज़र गई

और मैं तलाश-ए-जादा-ए-मंज़िल में रह गया

मंज़िल फ़ना-ए-ज़ौक़-ए-तलब का मक़ाम थी

अच्छा हुआ मैं सरहद-ए-मंज़िल में रह गया

अल्लाह-रे जज़्ब-ए-इश्क़ कि हुस्न-ए-निगाह-ए-क़ैस

इक नक़्श बन के पर्दा-ए-महमिल में रह गया

नाला तो ख़ैर नंग-ए-ग़म-ए-इश्क़ था मगर

नग़्मा भी सोज़-ओ-साज़ की महफ़िल में रह गया

सारे हिजाब-ए-हुस्न निगाहों से हट गए

इक आइना ज़रूर मुक़ाबिल में रह गया

मुझ से ये पूछती हैं मिरी हिचकियाँ 'फ़िगार'

अब कितना फ़ासला तिरी मंज़िल में रह गया

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