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शोहरत-ए-तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ आम हुई जाती है - फ़िगार उन्नावी कविता - Darsaal

शोहरत-ए-तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ आम हुई जाती है

शोहरत-ए-तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ आम हुई जाती है

कोशिश-ए-ज़ब्त भी नाकाम हुई जाती है

मस्त हैं और तलब-ए-जाम हुई जाती है

बे-ख़ुदी होश का पैग़ाम हुई जाती है

मुस्कुराता है हसीं पर्दा-ए-गुलशन में कोई

और कली मुफ़्त में बदनाम हुई जाती है

क़ैद में भी है असीरों का वही जोश-ए-अमल

मश्क़-ए-पर्वाज़ तह-ए-दाम हुई जाती है

तोड़ कर दिल निगह-ए-मस्त न फेर ऐ साक़ी

बज़्म की बज़्म ही बे-जाम हुई जाती है

लब जो खोले तो गुलिस्ताँ में कली कौन कहे

चुप भी रहती है तो बदनाम हुई जाती है

मुझ को ले जाएगी मंज़िल पे मिरी सुब्ह-ए-यक़ीं

लाख रस्ते में मुझे शाम हुई जाती है

नावक-अंदाज़ी-ए-जानाँ का असर है कि 'फ़िगार'

एक दुनिया मिरी हमनाम हुई जाती है

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