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सई-ए-ग़ैर-हासिल को मुद्दआ नहीं मिलता - फ़िगार उन्नावी कविता - Darsaal

सई-ए-ग़ैर-हासिल को मुद्दआ नहीं मिलता

सई-ए-ग़ैर-हासिल को मुद्दआ नहीं मिलता

बे-नियाज़ दिल बन कर देख किया नहीं मिलता

ज़िंदगी-ए-रफ़्ता का कुछ पता नहीं मिलता

ख़ाक-ए-पा तो मिलती है नक़्श-ए-पा नहीं मिलता

उस का आइना है दिल जा-ब-जा नहीं मिलता

दिल में जब हो तारीकी फिर ख़ुदा नहीं मिलता

आमद-ए-बहाराँ का इक पयाम लाने से

क्यूँ तिरा दिमाग़ आख़िर ऐ सबा नहीं मिलता

आइना-ब-आईना हम ने देख डाले दिल

एक सा ज़माने में दूसरा नहीं मिलता

जो तिरी निगाहों से बे-पिए मिला साक़ी

लाख जाम पी कर भी वो मज़ा नहीं मिलता

ख़िज़्र-ए-राह ने कितने मीर-ए-कारवाँ लूटे

हाए वो जो कहते हैं रहनुमा नहीं मिलता

उस की और मंज़िल है मेरी और मंज़िल है

शैख़ से 'फ़िगार' अपना रास्ता नहीं मिलता

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