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कुछ काम तो आया दिल-ए-नाकाम हमारा - फ़िगार उन्नावी कविता - Darsaal

कुछ काम तो आया दिल-ए-नाकाम हमारा

कुछ काम तो आया दिल-ए-नाकाम हमारा

टूटा है तो टूटा ही सही जाम हमारा

जितना इसे समझा किए बेगाना-ए-तासीर

इतना तो न था जज़्बा-ए-दिल ख़ाम हमारा

ये कौन मक़ाम आया क़दम उठते नहीं हैं

मंज़िल पे ठहरना तो न था काम हमारा

हम जैसे तड़पते हैं तड़पते रहे दिन रात

कुछ कर न सकी गर्दिश-ए-अय्याम हमारा

ये गर्दिश-ए-पैमाना है या गर्दिश-ए-तक़दीर

साक़ी किसी साग़र पे तो हो नाम हमारा

फूलों की हँसी बाइस-ए-तख़रीब-ए-चमन है

काँटों पे नहीं है कोई इल्ज़ाम हमारा

हम गर्दिश-ए-साग़र को निगाहों में लिए हैं

देखे कोई हुस्न-ए-तलब-ए-जाम हमारा

आग़ाज़-ए-मोहब्बत ही का एजाज़-ए-करम है

दिल हो गया बेगाना-ए-अंजाम हमारा

अंदाज़ तड़पने का जुदागाना है लेकिन

है कोई 'फ़िगार' और भी हमनाम हमारा

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