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हस्ती इक नक़्श-ए-इनइकासी है - फ़िगार उन्नावी कविता - Darsaal

हस्ती इक नक़्श-ए-इनइकासी है

हस्ती इक नक़्श-ए-इनइकासी है

ये हक़ीक़त नहीं क़यासी है

ज़ौक़ तिश्ना है रूह प्यासी है

सारा माहौल ही सियासी है

खुब गई दिल में हर अदा उस की

कज-अदाई भी ख़ुश-अदा सी है

दिल है अफ़्सुर्दा तो बहार कहाँ

बाग़ में हर तरफ़ उदासी है

उन को पा कर क़रार आएगा

अहल-ए-दिल ये भी ख़ुश-क़यासी है

सौ हिजाबों में बे-हिजाब है हुस्न

सौ लिबासों में बे-लिबासी है

मुद्दआ तक बयाँ नहीं होता

बद-हवासी सी बद-हवासी है

उन को देखा नहीं 'फ़िगार' मगर

उन के जल्वों से रू-शनासी है

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