हदीस-ए-सोज़-ओ-साज़-ए-शम्-ओ-परवाना नहीं कहते
हदीस-ए-सोज़-ओ-साज़-ए-शम्-ओ-परवाना नहीं कहते
हम अपना हाल-ए-दिल कहते हैं अफ़्साना नहीं कहते
वही मय-नोश राज़-ए-बादा-ए-उल्फ़त समझते हैं
जो मस्ती को रहीन-ए-जाम-ओ-पैमाना नहीं कहते
सआदत सोज़-ए-दिल की भी बड़ी मुश्किल से मिलती है
सर-ए-महफ़िल हर इक शोले को परवाना नहीं कहते
हमारा टूटा साग़र ही हमारे काम आएगा
किसी के ज़र्फ़ को हम अपना पैमाना नहीं कहते
ये कैसा इंक़लाब आया जहान-ए-बे-नियाज़ी में
कि वो भी अपने दीवाने को दीवाना नहीं कहते
'फ़िगार' अशआर में अपने हैं रक़्साँ शोख़ियाँ ग़म की
कली की दास्ताँ फूलों का अफ़्साना नहीं कहते
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