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तिरी जुस्तुजू में देखा मैं कहाँ कहाँ से गुज़रा - फ़िगार मुरादाबादी कविता - Darsaal

तिरी जुस्तुजू में देखा मैं कहाँ कहाँ से गुज़रा

तिरी जुस्तुजू में देखा मैं कहाँ कहाँ से गुज़रा

कभी इस ज़मीं को रौंदा कभी आसमाँ से गुज़रा

तिरे ग़म में दो जहाँ से जो बचा लिया है दामन

कभी ऐसा भी हुआ है ग़म-ए-दो-जहाँ से गुज़रा

मिरे नक़्श-हा-ए-उल्फ़त ये बता रहे हैं सब को

मैं कहाँ कहाँ पे ठहरा मैं कहाँ कहाँ से गुज़रा

ये मसाजिद-ओ-मनादिर मिरे काम कुछ न आए

तिरे इश्क़ में जो गुज़रा तो मैं अपनी जाँ से गुज़रा

तू ख़बीर भी है कामिल तू अलीम भी है मुतलक़

तिरे सामने कहूँ क्या मैं कहाँ कहाँ से गुज़रा

कभी वो थे मुझ से बरहम कभी मुझ पे मेहरबाँ थे

कि 'फ़िगार' इश्क़ मेरा कड़े इम्तिहाँ से गुज़रा

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