ये बस्ती कब दरिंदों से थी ख़ाली
मैं फिर भी ठीक लोगों में रहा हूँ
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ये सूरज क्यूँ भटकता फिर रहा है
सूरज ऊँचा हो कर मेरे आँगन में भी आया है
इस कमरे में ख़्वाब रक्खे थे कौन यहाँ पर आया था
मिलों के शहर में घटता हुआ दिन सोचता होगा
रातों के ख़ौफ़ दिन की उदासी ने क्या दिया
हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता
सुनते हैं कि इन राहों में मजनूँ और फ़रहाद लुटे
सफ़र
आ के हो जा बे-लिबास
रिश्ता खुजियाया हुआ कुत्ता है
जब जंगल बस्ती में आया
न कर शुमार कि हर शय गिनी नहीं जाती