सूरज ऊँचा हो कर मेरे आँगन में भी आया है
पहले नीचा था तो ऊँचे मीनारों पर बैठा था
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रात को ख़्वाब बहुत देखे हैं
उसे मालूम है मैं सर-फिरा हूँ
न कर शुमार कि हर शय गिनी नहीं जाती
जब जंगल बस्ती में आया
इस कमरे में ख़्वाब रक्खे थे कौन यहाँ पर आया था
रिश्ता खुजियाया हुआ कुत्ता है
हर इक शय ख़ून में डूबी हुई है
ये सन्नाटा बहुत महँगा पड़ेगा
कली कली का बदन फोड़ कर जो निकला है
मिलों के शहर में घटता हुआ दिन सोचता होगा
हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता
कमरे में आ के बैठ गई धूप मेज़ पर