रात को ख़्वाब बहुत देखे हैं
आज ग़म कल से ज़रा हल्का है
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रातों के ख़ौफ़ दिन की उदासी ने क्या दिया
जब जंगल बस्ती में आया
आ के हो जा बे-लिबास
वही दो-चार चेहरे अजनबी से
न कर शुमार कि हर शय गिनी नहीं जाती
ये सन्नाटा बहुत महँगा पड़ेगा
जिन ख़्वाबों से नींद उड़ जाए ऐसे ख़्वाब सजाए कौन
मौत माँ की तरह साथ है
कली कली का बदन फोड़ कर जो निकला है
ये सूरज क्यूँ भटकता फिर रहा है
सफ़र
उसे मालूम है मैं सर-फिरा हूँ