एक नज़्म
आसमाँ सर पर उगाने में मिरा हिस्सा नहीं है
ये ज़मीं भी कल तलक जिस गाए के सींगों टिकी थी
वो मिरी कोई नहीं थी
और अब जिस बे-बदन नंगे ख़ला में तैरती है
वो ख़ला भी मैं नहीं हूँ
हर तरफ़ फैली हुई बे-रंग चेहरा ज़िंदगी को
मैं भला क्या ढालता
गोश्त का जो लोथड़ा लिक्खा है मेरे नाम
वो भी और का ढाला हुआ है
वो पुराने दिन भले थे जब सभी कुछ चल रहा था
नाम इस का काम उस का
वो मगर मेरे उजाले बड़े से ग़ार में ग़ारत हुआ है
अन-गिनत इल्ज़ाम कीलों में टंगा मेरा बदन
क़तरा क़तरा चीख़ता है
और सन्नाटा मज़ों में गुनगुनाता फिर रहा है
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