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आ के हो जा बे-लिबास - फ़ज़्ल ताबिश कविता - Darsaal

आ के हो जा बे-लिबास

दिन जो कहता है मत सुन

धूप काँधों पर उठाने से भी हट जा

ढेर से ग़ुस्से को अपनी मुट्ठियों में भर के ले आ

शहर भर के मुँह पे मल दे

हर तरफ़ कालक ही कालक पोत दे दीवार-ओ-दर पर

दिन के सब आसार ढा दे

नोच ले आकाश से जलते हुए ख़ुर्शीद को

धूप की चादर को कर दे तार तार

और फिर घर आ के हो जा बे-लिबास

बंद हो जा घर की अंधी कोठरी में

बंद रह लम्बे समय तक

जब तलक सूरज तिरे अपने ही काले ग़ार से

बाहर न झाँके बंद रह

धूप जब तक कोढ़ की सूरत तिरे काले बदन को

फोड़ कर बाहर न निकले बंद रह

जब तलक ग़ुस्से का काला झाग तुझ में खो न जाए

बंद रह बंद रह लम्बे समय तक

ये ग़लत-फ़हमी कि तेरे बंद रहने से

यहाँ कुछ कम हुआ है भूल जा

भीड़ के इतने बड़े जंगल में

कब कुछ कम हुआ है

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