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उसे मालूम है मैं सर-फिरा हूँ - फ़ज़्ल ताबिश कविता - Darsaal

उसे मालूम है मैं सर-फिरा हूँ

उसे मालूम है मैं सर-फिरा हूँ

मगर ख़ुश है कि उस को चाहता हूँ

ये बस्ती कब दरिंदों से थी ख़ाली

मैं फिर भी ठीक लोगों में रहा हूँ

जो चाहे वो मुझे बे-दाम ले ले

ख़रीदारों के हाथों कम बिका हूँ

तिरी चाहत बहाना है यक़ीं कर

ब-हर सूरत मैं ख़ुद को चाहता हूँ

ज़रा सुन बे-नियाज़-ए-लम्स सुन ले

मैं तुझ को छू के ख़ुद को भूलता हूँ

कहाँ तोड़ा है मैं ने शाख़ से गुल

मैं शाख़-ए-गुल पे गुल को मानता हूँ

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