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मैं उस के ख़्वाब में कब जा के देख पाया हूँ - फ़ज़्ल ताबिश कविता - Darsaal

मैं उस के ख़्वाब में कब जा के देख पाया हूँ

मैं उस के ख़्वाब में कब जा के देख पाया हूँ

है और कोई वहाँ पर कि मैं ही तन्हा हूँ

तुम्हें ख़बर है घरोंदों से खेलते बच्चो

मैं तुम में अपना गया वक़्त देख लेता हूँ

तुम उस किनारे खड़े हो बुला रहे हो मुझे

यक़ीं करो कि मैं उस ओर से ही आया हूँ

वो अपने गाँव से कल ही तो शहर आया है

वो बात बात पे हँसता है मैं लरज़ता हूँ

वो कह रहे हैं रिवायत का एहतिराम करो

मैं अपनी नाश की बदबू से भागा फिरता हूँ

रवायातन मैं उसे चाँद कह तो दूँ 'ताबिश'

कहीं वो ये न समझ ले कि मैं बनाता हूँ

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