ग़म-ए-दौराँ में कहाँ बात ग़म-ए-जानाँ की
नज़्म है अपनी जगह ख़ूब मगर हाए ग़ज़ल
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नक़ाब उन ने रुख़ से उठाई तो लेकिन
ग़मों से खेलते रहना कोई हँसी भी नहीं
हमारे उन के तअल्लुक़ का अब ये आलम है
तामीर-ए-नौ क़ज़ा-ओ-क़दर की नज़र में है
अब वो महकी हुई सी रात नहीं
है सख़्त मुश्किल में जान साक़ी पिलाए आख़िर किधर से पहले
आँखों का तो काम ही है रोना
कुछ तो मुझे महबूब तिरा ग़म भी बहुत है
ज़िंदगी साज़-ए-शिकस्ता की फ़ुग़ाँ ही तो नहीं
तुम्हीं इक नहीं जाँ-सेताँ और भी हैं
अस्बाब-ए-ज़िंदगी की हर इक चीज़ है गराँ