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ज़िंदगी साज़-ए-शिकस्ता की फ़ुग़ाँ ही तो नहीं - फ़ज़्ल अहमद करीम फ़ज़ली कविता - Darsaal

ज़िंदगी साज़-ए-शिकस्ता की फ़ुग़ाँ ही तो नहीं

ज़िंदगी साज़-ए-शिकस्ता की फ़ुग़ाँ ही तो नहीं

ज़मज़मा-संज भी है मर्सियाँ-ख़्वाँ ही तो नहीं

इश्क़ से बाज़ हम आते जो गुज़रता वो गराँ

लुत्फ़ तो ये है तबीअ'त पे गराँ ही तो नहीं

दिल बुरा कीजिए किस तरह भला फिर उस से

राहत-ए-जाँ भी तो है आफ़त-ए-जाँ ही तो नहीं

ऐसी यादें भी हैं सौ ज़िंदगियाँ जिन पे निसार

हासिल-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-उम्र-ए-रवाँ ही तो नहीं

हम समझते हैं जो अपने को बड़ा अहल-ए-नज़र

ये भी फ़ैज़-ए-नज़र-ए-ख़ुश-नज़राँ ही तो नहीं

क़ाफ़िले में हैं बहुत राहरवाँ भी तो शरीक

रहबराँ ही तो नहीं राह-ज़नाँ ही तो नहीं

है बहुत नाज़ तुझे ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ पर 'फ़ज़ली'

ये ख़मोशी भी कहीं तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ ही तो नहीं

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