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तुम्हीं इक नहीं जाँ-सेताँ और भी हैं - फ़ज़्ल अहमद करीम फ़ज़ली कविता - Darsaal

तुम्हीं इक नहीं जाँ-सेताँ और भी हैं

तुम्हीं इक नहीं जाँ-सेताँ और भी हैं

बहुत हादसात-ए-जहाँ और भी हैं

हसीं और भी हैं जवाँ और भी हैं

ग़ज़ालान-ए-अबरू-कमाँ और भी हैं

सभी को मोहब्बत में होते हैं सदमे

अभी क्या अभी इम्तिहाँ और भी हैं

चलो धूम से जश्न-ए-मातम मनाएँ

हमें इक नहीं नौहा-ख़्वाँ और भी हैं

नहीं ख़त्म कुछ आसमाँ पर ख़ुदाई

मिरे हाल पर मेहरबाँ और भी हैं

नक़ाब उस ने रुख़ से उठाई तो लेकिन

हिजाबात कुछ दरमियाँ और भी हैं

फ़रेब-ए-करम इक तो उन का है इस पर

सितम मेरी ख़ुश-फ़हमियाँ और भी हैं

वफ़ा उन से अपनी जताने गए थे

मगर अब तो वो बद-गुमाँ और भी हैं

नहीं सब्र ही की कमी तुझ में 'फ़ज़ली'

मिरी जान कुछ ख़ामियाँ और भी हैं

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