मिरे लिए न रुक सके तो क्या हुआ
जहाँ कहीं ठहर गए हो ख़ुश रहो
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ख़ुमार-ए-शब में तिरा नाम लब पे आया क्यूँ
मिरे वजूद को परछाइयों ने तोड़ दिया
ज़िंदगानी को अदम-आबाद ले जाने लगा
ज़ियादा देर उसे देखना भी है 'फ़ाज़िल'
हमारे कमरे में उस की यादें नहीं हैं 'फ़ाज़िल'
मिसाल-ए-शम्अ जला हूँ धुआँ सा बिखरा हूँ
हम ने किसी की याद में अक्सर शराब पी
अब कौन जा के साहिब-ए-मिम्बर से ये कहे
मुझे उदास कर गए हो ख़ुश रहो
मेरे होंटों पे तेरे नाम की लर्ज़िश तो नहीं
कहीं से नीले कहीं से काले पड़े हुए हैं
मिलने का भी आख़िर कोई इम्कान बनाते