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सरहदें - फ़ाज़िल जमीली कविता - Darsaal

सरहदें

ये सरहदें.... पड़ोसनें

कभी हँसी-ख़ुशी रहीं

कभी ज़रा सी बात हो तो लड़ पड़ीं

न आँगनों में एक साथ रक़्स हो

न बाम पर ही बाहमी क़दम पड़े

गली में कोई खेल हो

न ताल हो, न मेल हो

कशीदगी के नाम पर घुटन की रेल-पेल हो

ये सरहदें.... पड़ोसनें

पड़ोसनों से क्या कहें

जहाँ में रंजिशों के सब ग्लेशियर पिघल गए

मगर यहाँ कुदूरतों की बर्फ़ है जमी हुई

हवा से किस तरह कहें

चले तो सिर्फ़ एक ही तरफ़ चले

ये धूप भी तो कब किसी के बस में है

कि पर्बतों को सरहदों में बाँट दे

ये ख़ार-दार दाएरे कहीं भी खींचते चलो

मगर कभी कोई सदा भी रुक सकी

ये ख़ुशबुओं के क़ाफ़िले

रहेंगे हर तरफ़ रवाँ

गली में आ ही जाएँगी

मोहब्बतों की तितलियाँ

ये सरहदें.... पड़ोसनें

बनेंगी फिर सहेलियाँ....!

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