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मिसाल-ए-शम्अ जला हूँ धुआँ सा बिखरा हूँ - फ़ाज़िल जमीली कविता - Darsaal

मिसाल-ए-शम्अ जला हूँ धुआँ सा बिखरा हूँ

मिसाल-ए-शम्अ जला हूँ धुआँ सा बिखरा हूँ

मैं इंतिज़ार की हर कैफ़ियत से गुज़रा हूँ

सब अपने अपने दियों के असीर पाए गए

मैं चाँद बन के कई आँगनों में उतरा हूँ

कुछ और बढ़ गई बारिश में बेबसी अपनी

न बाम से न किसी की गली से गुज़रा हूँ

पुकारती थी मुझे साहिलों की ख़ामोशी

मैं डूब डूब के जो बार बार उभरा हूँ

क्यूँ इतना मेरे ख़यालों में बस गया है कोई

कभी किसी के तसव्वुर से मैं भी गुज़रा हूँ

कोई तो आज मुझे आँख भर के देखेगा

मैं आज अपने लहू में नहा के निखरा हूँ

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