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दास्तानों में मिले थे दास्ताँ रह जाएँगे - फ़ाज़िल जमीली कविता - Darsaal

दास्तानों में मिले थे दास्ताँ रह जाएँगे

दास्तानों में मिले थे दास्ताँ रह जाएँगे

उम्र बूढ़ी हो तो हो हम नौजवाँ रह जाएँगे

शाम होते ही घरों को लौट जाना है हमें

साहिलों पर सिर्फ़ क़दमों के निशाँ रह जाएँगे

हम किसी के दिल में रहना चाहते थे इस तरह

जिस तरह अब गुफ़्तुगू के दरमियाँ रह जाएँगे

ख़्वाब को हर ख़्वाब की ताबीर मिलती है कहाँ

कुछ ख़याल ऐसे भी हैं जो राएगाँ रह जाएँगे

किस ने सोचा था कि रंग-ओ-नूर की बारिश के बअ'द

हम फ़क़त बुझते चराग़ों का धुआँ रह जाएँगे

ज़िंदगी बे-नाम रिश्तों के सिवा कुछ भी नहीं

जिस्म किस के साथ होंगे दिल कहाँ रह जाएँगे

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