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अपने होने के जो आसार बनाने हैं मुझे - फ़ाज़िल जमीली कविता - Darsaal

अपने होने के जो आसार बनाने हैं मुझे

अपने होने के जो आसार बनाने हैं मुझे

जाने कितने दर-ओ-दीवार बनाने हैं मुझे

ख़ुद को रखना भी नहीं जिंस-ए-गिराँ की सूरत

बिकने वालों के भी मेआ'र बनाने हैं मुझे

तेरे क़दमों में बिछाने हैं ज़मीनी रस्ते

और अपने लिए कोहसार बनाने हैं मुझे

अपने जैसा कोई दुश्मन भी ज़रूरी है बहुत

तेरे जैसे भी कई यार बनाने हैं मुझे

सिलसिला टूट न जाए मिरी वहशत का कहीं

नक़्श क़दमों के लगातार बनाने हैं मुझे

तू कभी धूप में निकले भी तो छाँव में रहे

रास्ते और भी छितनार बनाने हैं मुझे

मैं रहूँ या न रहूँ तेरी कहानी तो रहे

अपने जैसे कई किरदार बनाने हैं मुझे

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