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वो बर्क़ का हो कि मौजों के पेच-ओ-ताब का रंग - फ़ाज़िल अंसारी कविता - Darsaal

वो बर्क़ का हो कि मौजों के पेच-ओ-ताब का रंग

वो बर्क़ का हो कि मौजों के पेच-ओ-ताब का रंग

जुदा है सब से मिरे दिल के इज़्तिराब का रंग

शगुफ़्तगी मुझे ज़ख़्म-ए-जिगर की याद आई

चमन में देख के खिलते हुए गुलाब का रंग

किया न तर्क अगर तर्क-ए-आशिक़ी का ख़याल

ख़राब और भी होगा दिल-ए-ख़राब का रंग

लगा रहे हैं वो नश्तर से ज़ख़्म पर मरहम

निगाह-ए-लुत्फ़-ओ-करम में भी है इ'ताब का रंग

ये मय-कदा तो है ख़ुद इंक़लाब की दुनिया

यहाँ जमेगा न दुनिया के इंक़लाब का रंग

हवादिसों से जमाल-ए-रुख़-ए-हयात है यूँ

क़रीब शाम हो जिस तरह आफ़्ताब का रंग

दिल-ए-तबाह का 'फ़ाज़िल' ख़ुदा ही हाफ़िज़ है

कि अब है और ही कुछ दर्द-ओ-इज़तिराब का रंग

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