वो बर्क़ का हो कि मौजों के पेच-ओ-ताब का रंग
वो बर्क़ का हो कि मौजों के पेच-ओ-ताब का रंग
जुदा है सब से मिरे दिल के इज़्तिराब का रंग
शगुफ़्तगी मुझे ज़ख़्म-ए-जिगर की याद आई
चमन में देख के खिलते हुए गुलाब का रंग
किया न तर्क अगर तर्क-ए-आशिक़ी का ख़याल
ख़राब और भी होगा दिल-ए-ख़राब का रंग
लगा रहे हैं वो नश्तर से ज़ख़्म पर मरहम
निगाह-ए-लुत्फ़-ओ-करम में भी है इ'ताब का रंग
ये मय-कदा तो है ख़ुद इंक़लाब की दुनिया
यहाँ जमेगा न दुनिया के इंक़लाब का रंग
हवादिसों से जमाल-ए-रुख़-ए-हयात है यूँ
क़रीब शाम हो जिस तरह आफ़्ताब का रंग
दिल-ए-तबाह का 'फ़ाज़िल' ख़ुदा ही हाफ़िज़ है
कि अब है और ही कुछ दर्द-ओ-इज़तिराब का रंग
(693) Peoples Rate This