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कोहसारों में नहीं है कि बयाबाँ में नहीं - फ़ाज़िल अंसारी कविता - Darsaal

कोहसारों में नहीं है कि बयाबाँ में नहीं

कोहसारों में नहीं है कि बयाबाँ में नहीं

बाग़बाँ हुस्न फ़क़त तेरे गुलिस्ताँ में नहीं

मौज-ए-दरिया की रवानी कि घटाओं का ख़िराम

कौन सी बात तिरी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ में नहीं

तुझ से हो तर्क-ए-जफ़ा मुझ से वफ़ाएँ छूटें

वो तिरे बस में नहीं ये मिरे इम्काँ में नहीं

ख़ैर धुँदलाई सी थी रौशनी-ए-शाम-ए-ख़िज़ाँ

बाग़बाँ वो भी तो इस सुब्ह-ए-बहाराँ में नहीं

छीन ले साक़ी-ए-बे-फ़ैज़ के हाथों से सुबू

रिंद क्या ऐसा कोई महफ़िल-ए-रिंदाँ में नहीं

उलझनों का हो असर क्यूँ न सुकून-ए-दिल पर

रब्त क्या हम-नफ़सो साहिल-ओ-तूफ़ाँ में नहीं

ख़ंदा-ए-गुल हो कि हो गिर्या-ए-शबनम 'फ़ाज़िल'

दास्ताँ ग़म की निहाँ कौन से उनवाँ में नहीं

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