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गुलज़ार में एक फूल भी ख़ंदाँ तो नहीं है - फ़ाज़िल अंसारी कविता - Darsaal

गुलज़ार में एक फूल भी ख़ंदाँ तो नहीं है

गुलज़ार में एक फूल भी ख़ंदाँ तो नहीं है

कुछ और है ये दौर-ए-बहाराँ तो नहीं है

है चाक-ब-दामाँ ही तू ऐ लाला-ए-ख़ुद-सर

गुल तेरी तरह दाग़-ब-दामाँ तो नहीं है

अच्छा ही हुआ डूब गया मेरा सफ़ीना

अब कश्मकश-ए-साहिल-ओ-तूफ़ाँ तो नहीं है

तक़दीर की बात और है वर्ना दिल-ए-मुज़्तर

उम्मीद के बर आने का इम्काँ तो नहीं है

इस बार-ए-गराँ का है उठाना बहुत आसाँ

ग़म है किसी कम-ज़र्फ़ का एहसाँ तो नहीं है

पामाल करे क्यूँ कोई बे-दर्द कि सब्ज़ा

बेगाना सही नंग-ए-गुलिस्ताँ तो नहीं है

क़ीमत मिरे आँसू की फ़क़त एक तबस्सुम

शबनम की तरह ये कोई अर्ज़ां तो नहीं है

क्यूँ मुझ पे नज़र है तिरी ऐ गर्दिश-ए-दौराँ

हस्ती मिरी दुनिया में नुमायाँ तो नहीं है

कुछ दाग़ हैं कुछ ज़ख़्म हैं 'फ़ाज़िल' के जिगर में

मुफ़लिस है मगर बे-सर-ओ-सामाँ तो नहीं है

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