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दिल के मकाँ में आँख के आँगन में कुछ न था - फ़ाज़िल अंसारी कविता - Darsaal

दिल के मकाँ में आँख के आँगन में कुछ न था

दिल के मकाँ में आँख के आँगन में कुछ न था

जब ग़म न था हयात के दामन में कुछ न था

ये तो ज़रा बताओ हमें अहल-ए-कारवाँ

उन रहबरों में क्या है जो रहज़न में कुछ न था

ज़ुल्मत का जब तिलिस्म न टूटा निगाह से

रौशन हुआ कि दीदा-ए-रौशन में कुछ न था

वो तो बहार का हमें रखना पड़ा भरम

वर्ना ये वाक़िआ है कि गुलशन में कुछ न था

मुझ पर ब-तौर-ए-ख़ास थी उस की निगाह-ए-लुत्फ़

कहता मैं किस तरह मिरे दुश्मन में कुछ न था

ये भी दुरुस्त है कि नशेमन में बर्क़ थी

ये भी ग़लत नहीं कि नशेमन में कुछ न था

'फ़ाज़िल' रुख़-ए-हयात पे यूँ थीं मसर्रतें

जैसे ग़म-ए-हयात की उलझन में कुछ न था

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