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बशर की ज़ात में शर के सिवा कुछ और नहीं - फ़ाज़िल अंसारी कविता - Darsaal

बशर की ज़ात में शर के सिवा कुछ और नहीं

बशर की ज़ात में शर के सिवा कुछ और नहीं

ये बात नक़्स-ए-नज़र के सिवा कुछ और नहीं

हयात की शब-ए-तारीक ख़त्म होती है

क़ज़ा तुलू-ए-सहर के सिवा कुछ और नहीं

जो देखिए तो कफ़-ए-गुल-फ़रोश भी है हयात

ग़लत कि दामन-ए-तर के सिवा कुछ और नहीं

गुज़र के हद से हर इक शय बर-अक्स होती है

कमाल-ए-ऐब-ए-हुनर के सिवा कुछ और नहीं

ये रंग जो नज़र आता है चेहरा-ए-गुल पर

हमारे ख़ून-ए-जिगर के सिवा कुछ और नहीं

बशर है जौहर-ए-किरदार से गराँ-माया

गुहर में आब-ए-गुहर के सिवा कुछ और नहीं

नज़र-फ़रेब नज़ारे जहाँ के ऐ 'फ़ाज़िल'

फ़रेब-ए-हुस्न-ए-नज़र के सिवा कुछ और नहीं

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