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ख़ाक में मुझ को मिरी जान मिला रक्खा है - फ़ज़ल हुसैन साबिर कविता - Darsaal

ख़ाक में मुझ को मिरी जान मिला रक्खा है

ख़ाक में मुझ को मिरी जान मिला रक्खा है

क्या मैं आँसू हूँ जो नज़रों से गिरा रक्खा है

इक तुम्हीं को नहीं बेचैन बना रक्खा है

अर्श भी तो मिरे नालों से हिला रक्खा है

सोरिश-ए-हिज्र ने इक सीम-बदन के मुझ को

ऐसा फूँका है कि इक्सीर बना रक्खा है

इक परी-वश की इनायत ने ज़माने में मुझे

वक़्त का अपने सुलैमान बना रक्खा है

अपने साया से भड़क कर कहा उस शोख़ ने यूँ

मिरे अल्लाह किसे साथ लगा रखा है

दिल तो देता हूँ मिरी जान मगर ग़म है यही

मेरे अरमानों ने घर इस में बना रक्खा है

दिल के तालिब जो हुआ करते हैं आशिक़ से हसीं

तो उन्हें हुस्न ने ये काम सिखा रक्खा है

सामने आते हुए किस लिए शरमाते हो

जब मिरी आँख में घर तुम ने बना रक्खा है

मुफ़्त दिल को मिरे ऐ बर्क़ वश उल्फ़त है तिरी

मुज़्तरिब सूरत-ए-सीमाब बना रक्खा है

तेरी दुज़-दीदा निगाहें ये पता देती हैं

कि इन्हीं चोरों ने दिल मेरा चुरा रक्खा है

माल चोरी का नहीं जब तो बता दो मुझ को

तुम ने किस चीज़ को मुट्ठी में दबा रक्खा है

तुम ने क्यूँ दिल में जगह दी है बुतों को 'साबिर'

तुम ने क्यूँ काबा को बुत-ख़ाना बना रक्खा है

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