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इधर भी देख ज़रा बे-क़रार हम भी हैं - फ़ज़ल हुसैन साबिर कविता - Darsaal

इधर भी देख ज़रा बे-क़रार हम भी हैं

इधर भी देख ज़रा बे-क़रार हम भी हैं

तिरे फ़िदाई तिरे जाँ-निसार हम भी हैं

बुतो हक़ीर न समझो हमें ख़ुदा के लिए

ग़रीब बाँदा-ए-परवर-दिगार हम भी हैं

कहाँ की तौबा ये मौक़ा है फूल उड़ाने का

चमन है अब्र है साक़ी है यार हम भी हैं

मिसाल-ए-ग़ुंचा उधर ख़ंदा-ज़न है वो गुल-ए-तर

मिसाल-ए-अब्र इधर अश्क-बार हम भी हैं

जिगर ने दिल से कहा दर्द-ए-हिज्र-ए-जानाँ में

कि एक तू ही नहीं बे-क़रार हम भी हैं

मुदाम सामने ग़ैरों के बे-नक़ाब रहे

इसी पे कहते हो तुम पर्दा-दार हम भी हैं

हमें भी दीजिए अपनी गली में थोड़ी जगह

ग़रीब बल्कि ग़रीब-उद-दयार हम भी हैं

शगुफ़्ता बाग़-ए-सुख़न है हमीं से ऐ 'साबिर'

जहाँ में मिस्ल-ए-नसीम-ए-बहार हम भी हैं

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