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ज़मीन चीख़ रही है कि आसमान गिरा - फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी कविता - Darsaal

ज़मीन चीख़ रही है कि आसमान गिरा

ज़मीन चीख़ रही है कि आसमान गिरा

ये कैसा बोझ हमारे बदन पे आन गिरा

बहुत संभाल के रख बे-सबात लम्हों को

ज़रा जो सनकी हवा रेत का मकान गिरा

इस आईने ही में लोगों ने ख़ुद को पहचाना

भला हुआ कि मैं चेहरों के दरमियान गिरा

रफ़ीक़-ए-सम्त-ए-सफ़र होगी जो हवा होगी

ये सोच कर न सफ़ीने का बादबान गिरा

मैं अपने अहद की ये ताज़गी कहाँ ले जाऊँ

इक एक लफ़्ज़ क़लम से लहूलुहान गिरा

क़रीब ओ दूर कोई शोला-ए-नवा भी नहीं

ये किन अंधेरों में हाथों से शम्अ-दान गिरा

'फ़ज़ा' को तोड़ तो फेंका हवाओं ने लेकिन

ये फूल अपनी ही शाख़ों के दरमियान गिरा

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