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तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ - फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी कविता - Darsaal

तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ

तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ

ऐसे पस-मंज़र में क्या रहना सर-ए-मंज़र तो आ

आज के सारे हक़ाएक़ वाहिमों की ज़द में हैं

ढालना है तुझ को ख़्वाबों से कोई पैकर तो आ

तू सही इक अक्स लेकिन ये हिसार-ए-आइना

लोग तुझ को देखना चाहें बरून-ए-दर तो आ

ज़ाइक़ा ज़ख़्मों का यूँ कैसे समझ में आएगा

फेंकना है बंद पानी में कोई पत्थर तो आ

जिस्म-ए-ख़ाकी तुझ को शीशे की हवेली ही सही

ऐ चराग़-ए-जाँ कभी फ़ानूस के बाहर तो आ

इस जगह आहंग में ढलती हैं दिल की धड़कनें

आ मिरे गहवारा-ए-एहसास के अंदर तो आ

बार-हा जी में ये आई उम्र-ए-रफ़्ता से कहूँ

शाम होने को है ऐ भूले मुसाफ़िर घर तो आ

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