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रूह और बदन दोनों दाग़ दाग़ हैं यारो - फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी कविता - Darsaal

रूह और बदन दोनों दाग़ दाग़ हैं यारो

रूह और बदन दोनों दाग़ दाग़ हैं यारो

फिर भी अपने बाम-ओ-दर बे-चराग़ हैं यारो

आओ हम में ढल जाओ उम्र भर के प्यासे हैं

तुम शराब हो यारो हम अयाग़ हैं यारो

जिन पे बारिश-ए-गुल है उन का हाल क्या होगा

ज़ख़्म खाने वाले भी बाग़ बाग़ हैं यारो

जिन को रह के काँटों में ख़ुश-मिज़ाज होना था

वो मक़ाम-ए-गुल पा कर बे-दिमाग़ हैं यारो

हम से मिल के फ़ितरत के पेच-ओ-ख़म को समझोगे

हम जहान-ए-फ़ितरत का इक सुराग़ हैं यारो

ना-शनासों की तहसीं रंग लाई है क्या क्या

कोइले भी अब लाल-ए-शब-चराग़ हैं यारो

हम हसीन ग़ज़लों से पेट भर नहीं सकते

दौलत-ए-सुख़न ले कर बे-फ़राग़ हैं यारो

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