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पाया-ए-ख़िश्त-ओ-ख़ज़फ़ और गुहर से ऊँचा - फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी कविता - Darsaal

पाया-ए-ख़िश्त-ओ-ख़ज़फ़ और गुहर से ऊँचा

पाया-ए-ख़िश्त-ओ-ख़ज़फ़ और गुहर से ऊँचा

क़द यहाँ बे-हुनरी का है हुनर से ऊँचा

एक दिन ग़र्क़ न कर दे तुझे ये सैल-ए-वजूद

देख हो जाए न पानी कहीं सर से ऊँचा

माँगता किस से मुझे संग-ए-सर-अफ़राज़ी दे

कोई दरवाज़ा तो होता तिरे दर से ऊँचा

हम-क़दम है तपिश-ए-जाँ तो पहुँच जाऊँगा

एक दो जस्त में दीवार-ए-शजर से ऊँचा

एक बिगड़ी हुई तमसील हैं सारे चेहरे

कोई मंज़र नहीं मेयार-ए-नज़र से ऊँचा

धूप उतरी तो सिमटना पड़ा ख़ुद में उस को

एक साया कि जो था अपने शजर से ऊँचा

बुलबुला उठने को उट्ठा तो मगर बेचारा

रख सका ख़ुद को न दरिया के भँवर से ऊँचा

कैसी पस्ती में ये दुनिया ने बसाया है मुझे

नज़र आता है हर इक घर मिरे घर से ऊँचा

वो कहाँ से ये तख़य्युल के उफ़ुक़ लाएगा

आसमाँ अब भी नहीं है मिरे सर से ऊँचा

ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'

नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा

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