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बिसात-ए-दानिश-ओ-हर्फ़-ओ-हुनर कहाँ खोलें - फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी कविता - Darsaal

बिसात-ए-दानिश-ओ-हर्फ़-ओ-हुनर कहाँ खोलें

बिसात-ए-दानिश-ओ-हर्फ़-ओ-हुनर कहाँ खोलें

ये सोचते हैं लब-ए-मो'तबर कहाँ खोलें

अजब हिसार हैं सब अपने गिर्द खींचे हुए

वजूद की वही दीवार दर कहाँ खोलीं

पड़ाव डालें कहाँ रास्ते में शाम हुई

भँवर हैं सामने रख़्त-ए-सफ़र कहाँ खोलें

यहाँ शुऊ'र के नाख़ुन तो हम भी रखते हैं

मगर ये उक़्दा-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र कहाँ खोलें

न इस के साथ हमारा भी मोल होने लगे

हैं कश्मकश में कि मुश्त-ए-गुहर कहाँ खोलें

हवा है तेज़ न इस के वरक़ उड़ा ले जाए

सहीफ़ा-ए-नफ़स-ए-मुख़्तसर कहाँ खोलें

बचाएँ आबरू जिस्मों की भीड़ में कैसे

है खोलनी गिरह-ए-जाँ मगर कहाँ खोलें

कोई 'फ़ज़ा' तो मिले हम को क़ाबिल-ए-परवाज़

अब इन हदों में भला बाल-ओ-पर कहाँ खोलें

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