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राह में उस की चलें और इम्तिहाँ कोई न हो - फ़य्याज़ फ़ारुक़ी कविता - Darsaal

राह में उस की चलें और इम्तिहाँ कोई न हो

राह में उस की चलें और इम्तिहाँ कोई न हो

कैसे मुमकिन है कि आतिश हो धुआँ कोई न हो

उस की मर्ज़ी है वो मिल जाए किसी को भीड़ में

और कभी ऐसे मिले कि दरमियाँ कोई न हो

जगमगाता है सितारा बन के तब उम्मीद का

बुझ गए हों सब दिए और कहकशाँ कोई न हो

ख़ाना-ए-दिल में वो रहता कब किसी के साथ है

जल्वागर होता है वो जब मेहमाँ कोई न हो

कैसे मुमकिन है कि क़िस्से जिस से सब वाबस्ता हों

वो चले और साथ उस के दास्ताँ कोई न हो

सारे आलम पर वो लिख देता है उस का नाम जब

कोई ख़ुद को यूँ मिटा ले कि निशाँ कोई न हो

बन के लश्कर साथ हो जाता है वो 'फ़य्याज़' जब

हम-सफ़र कोई न हो और कारवाँ कोई न हो

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