मुआ'फ़ी
फ़ोम के बिस्तर पर इक दीवार उठा दी वक़्त ने
अजनबी ना-आश्ना ख़ामोश से रहने लगे
हाथ से काढ़े हुए
दोनों तकियों के ग़िलाफ़
बंद हैं आँखों में बातें
क़त्ल होंटों का मिलाप
वक़्त तुझ को दूँ भला मैं कौन से लफ़्ज़ों में शाप
जा तुझे सौ ख़ूँ मुआ'फ़
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