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कोई आँख चुपके चुपके मुझे यूँ निहारती है - फ़े सीन एजाज़ कविता - Darsaal

कोई आँख चुपके चुपके मुझे यूँ निहारती है

कोई आँख चुपके चुपके मुझे यूँ निहारती है

मिरे दिल में इक तमन्ना कहीं सर उभारती है

मिरी सोच का तरीक़ा मिरी आँख का सलीक़ा

यही शय है तेरे अंदर जो तुझे सँवारती है

नए शौक़ की चमक है किसी मेहमाँ नज़र में

मिरी रूह में उतर कर मिरे सर उभारती है

मुझे कुछ दिनों से उस से बड़ा प्यार मिल रहा है

कभी अपने दिल को वारे कभी जान हारती है

कभी जूड़ा खोल देना कभी फिर से बाँध लेना

मुझे शक सा हो चला है वो मुझे उभारती है

कोई गूँज बन के अब तक वो है जिस्म-ओ-जाँ से लिपटी

कि ठहर ठहर के अब भी वो मुझे पुकारती है

घने हो गए ज़ियादा जहाँ चाँदनी के साए

उसी दामन-ए-शजर में वो मुझे पुकारती है

नया हुस्न देखता हूँ ख़म-ए-शाख़-ए-हर-शजर पर

ये बहार अपने तन से जो लिबास उतारती है

कई साल की मोहब्बत मगर आज भी वही है

कि मैं इक शरीर बच्चा वो मुझे सुधारती है

बड़ी देर से हूँ लौटा मुझे ये बताओ लोगो

मिरी आरज़ू का दामन वो कहाँ पसारती है

जो मरा है हादसे में मिरा उस से क्या था रिश्ता

ये सड़क जो ख़ूँ में तर है मुझे क्यूँ पुकारती है

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