ख़र्च जब हो गई जज़्बों की रक़म आप ही आप

ख़र्च जब हो गई जज़्बों की रक़म आप ही आप

खुल गया हम पे हसीनों का भरम आप ही आप

अब के रूठे तो मनाने नहीं आया कोई

बात बढ़ जाए तो हो जाती है कम आप ही आप

रोज़ बढ़ता था कोई दस्त-ए-तलब अपनी तरफ़

सर से होता होगा इक बोझ भी कम आप ही आप

उन के वादों पे कोई दिन तो गुज़ारा कीजे

आप बन जाएँगे तस्वीर-ए-अलम आप ही आप

जैसे बुझता है कोई फूल शरारा बन कर

हुस्न की आँच भी हो जाएगी कम आप ही आप

आबगीनों की तरह टूट गया टूट गया

ख़्वाब-ए-यूसुफ़ में ज़ुलेख़ा का भरम आप ही आप

शाख़-ए-तन्हाई से फल तोड़ेंगे चुपके चुपके

इश्क़ के ये भी मज़े लूटेंगे हम आप ही आप

देर तक छाई रही एक उदासी दिल पर

जाने क्या सोच के फिर हँस दिए हम आप ही आप

मैं कहाँ आया हूँ लाए हैं तिरी महफ़िल में

मिरी वहशत मिरे मजबूर क़दम आप ही आप

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