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क्यूँ मसाफ़त में न आए याद अपना घर मुझे - फ़ौक़ लुधियानवी कविता - Darsaal

क्यूँ मसाफ़त में न आए याद अपना घर मुझे

क्यूँ मसाफ़त में न आए याद अपना घर मुझे

ठोकरें देने लगे हैं राह के पत्थर मुझे

किस का ये एहसास जागा दोपहर की धूप में

ढूँडने निकला है नंगे पाँव नंगे सर मुझे

जिस में आसूदा रहा मैं वो था काग़ज़ का मकाँ

एक ही झोंका हवा का कर गया बे-घर मुझे

मैं तो इन आलाइशों से दूर इक आईना था

आ लगा है मेरी अपनी सोच का पत्थर मुझे

आ गया था मैं सितम की बस्तियों को रौंद कर

क्या ख़बर थी ख़ुद निगल जाएगा अपना घर मुझे

अब अना की चार-दीवारी को गिरना चाहिए

क़ैद कर रक्खा है अपनी ज़ात के अंदर मुझे

'फ़ौक़' सैलाब-ए-ग़म-ए-दौराँ बहा कर ले गया

देखता ही रह गया इक हुस्न का पैकर मुझे

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