इक मुश्त-ए-पर हूँ मुझ को यक़ीनन सुकूँ नहीं
इक मुश्त-ए-पर हूँ मुझ को यक़ीनन सुकूँ नहीं
लेकिन हवा उड़ा के जो ले जाए यूँ नहीं
अक्सर ज़माने वालों ने सोचा है इस तरह
मौजूद हूँ मगर ये ख़बर हो कि हूँ नहीं
ख़ुद्दारी-ए-मिज़ाज कुछ इतनी अज़ीज़ है
मिल जाए सब जहान तो मैं उस को दूँ नहीं
वाइज़ ने यूँ बना लिया ख़ुद नज़्म-ए-ज़िंदगी
होते रहें गुनाह प उस को गिनूँ नहीं
नज़्ज़ारा चाहिए तो बयाबाँ में आइए
सब कुछ वहाँ पे सच है ज़रा सा फ़ुसूँ नहीं
दुनिया ये चाहती है 'वसीया' हर एक से
अपनी तो सब कहूँ पे किसी की सुनूँ नहीं
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