सुकून-ए-दिल के लिए इश्क़ तो बहाना था
वगरना थक के कहीं तो ठहर ही जाना था
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ख़्वाबों पर इख़्तियार न यादों पे ज़ोर है
आख़िरी लफ़्ज़
और कोई नहीं है उस के सिवा
सुनती रही मैं सब के दुख ख़ामोशी से
यादों के सब रंग उड़ा कर तन्हा हूँ
भूल गई हूँ किस से मेरा नाता था
मैं ने पहुँचाया उसे जीत के हर ख़ाने में
ख़्वाब गिरवी रख दिए आँखों का सौदा कर दिया
जिन ख़्वाहिशों को देखती रहती थी ख़्वाब में
पहचान जिन से थी वो हवाले मिटा दिए
बिखर रहे थे हर इक सम्त काएनात के रंग