पहचान जिन से थी वो हवाले मिटा दिए
उस ने किताब-ए-ज़ात का सफ़्हा बदल दिया
Gulzar
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Rahat Indori
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Faiz Ahmad Faiz
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रात दरीचे तक आ कर रुक जाती है
मेरी बेटी चलना सीख गई
मिरी ज़मीं पे लगी आप के नगर में लगी
रुका जवाब की ख़ातिर न कुछ सवाल किया
यादों के सब रंग उड़ा कर तन्हा हूँ
मैं ने माँ का लिबास जब पहना
बिखर रहे थे हर इक सम्त काएनात के रंग
हमारी नस्ल सँवरती है देख कर हम को
ज़ख़्मी उँगलियों से एक नज़्म
कोई नहीं है मेरे जैसा चारों ओर
किस से बिछड़ी कौन मिला था भूल गई
क्या कहूँ उस से कि जो बात समझता ही नहीं