मकाँ बनाते हुए छत बहुत ज़रूरी है
बचा के सेहन में लेकिन शजर भी रखना है
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आख़िरी लफ़्ज़
सुन रहे हैं कान जो कहते हैं सब
जिन ख़्वाहिशों को देखती रहती थी ख़्वाब में
मैं टूट कर उसे चाहूँ ये इख़्तियार भी हो
मैं ने माँ का लिबास जब पहना
रात दरीचे तक आ कर रुक जाती है
ख़्वाबों पर इख़्तियार न यादों पे ज़ोर है
अधूरे लफ़्ज़ थे आवाज़ ग़ैर-वाज़ेह थी
आँखों में न ज़ुल्फ़ों में न रुख़्सार में देखें
सुकून-ए-दिल के लिए इश्क़ तो बहाना था
कब उस की फ़त्ह की ख़्वाहिश को जीत सकती थी
क़ुर्बतों में फ़ासले कुछ और हैं