मैं ने पहुँचाया उसे जीत के हर ख़ाने में
मेरी बाज़ी थी मिरी मात समझता ही नहीं
Gulzar
Rahat Indori
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Habib Jalib
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Jaun Eliya
Javed Akhtar
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(890) Peoples Rate This
उलझ के रह गए चेहरे मिरी निगाहों में
पहचान जिन से थी वो हवाले मिटा दिए
ज़ख़्मी उँगलियों से एक नज़्म
मैं टूट कर उसे चाहूँ ये इख़्तियार भी हो
बिछड़ रहा था मगर मुड़ के देखता भी रहा
मकाँ बनाते हुए छत बहुत ज़रूरी है
ख़्वाब गिरवी रख दिए आँखों का सौदा कर दिया
कौन ख़्वाहिश करे कि और जिए
ठेस कुछ ऐसी लगी है कि बिखरना है उसे
हमारी नस्ल सँवरती है देख कर हम को
कोई नहीं है मेरे जैसा चारों ओर
और कोई नहीं है उस के सिवा